सांस्कृतिक अवमूल्यन की राजनीतिक साज़िश

सांस्कृतिक अवमूल्यन की राजनीतिक साज़िश

बोलने की आज़ादी पर बढ़ते हमलों के इस दौर में जो सबसे बड़े प्रश्न हमारे सामने खड़े हैं वह यह है की इन हमलों के सांस्कृतिक प्रभाव क्या होंगे और कितने घातक होंगे? सांस्कृतिक क्षेत्र अनिवार्य रूप से सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र से जुड़ा हुआ है, तथा इन हलकों में चल रहीं हलचलों की तरंगें सांस्कृतिक क्षेत्र में स्वतः ही दिखायी पड़तीं हैं। राजनीतिक सत्ता सांस्कृतिक क्षेत्र में घुसपैठ की कोशिश हमेशा ही करती है, लेकिन देश की मौजूदा सरकार की यह घुसपैठ मुसलसल आक्रामक होती जा रही है। इस आक्रामकता का पुरज़ोर विरोध लेखकों और कलाकर्मियों ने किया है और कर रहे हैं। संस्कृति के राजनीतिक-सामाजिक आयाम और कविता में विरोध की प्रवत्ति आदि विषयों पर प्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी के साथ सोनाली की बातचीत।


“Why can’t an academic deliver a lecture on secularism…

At Pratirodh, the Writers’ Convention organised on 1 November 2015, Romila Thapar began with an anecdotal account of her recent lecture on secularism in Mumbai, a lecture for which she was advised to take police protection. She asks, “After sixty eight years of independence, is it not possible for an academic to give an academic lecture on the subject of secularism without needing police protection? She describes her own take on government awards, and responds to the accusation of “selective outrage” with a history of protests by writers over a period of time on a range of issues. She also criticises the nature of television debates.